मैं नहीं मानता कि जुलूसों और घोषणाओं के शोर से क्रांति जगती है. मैं खुद कभी किसी जुलूस का हिस्सा नहीं बना. सन इकत्तीस के मोर्चे से आज की तारीख तक मुंबई में मैंने अनगिनत जुलूस देखे हैं. अमूमन मेरी पूरी हमदर्दी इन प्रदर्शनकारियों के प्रति होती है. लेकिन सड़कोंपर लोगों को चीखते जाता देख अंदर टीस लगती है. जुलूस भी एक फ़ार्मूला बन कर रह गए हैं. नेतागीरी अगर धंधा बन गयी हो, तो प्रदर्शन भी इश्तिहार का ज़रिया बनना लाज़मी है.
लेकिन इस जुलूस ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया था. अगवानी पर बुज़ुर्ग कदम रेंग रहे थे. चारो वर्णों के लोग जुलूस में शामिल थे. औरतें भी थीं. मजदूर तो नहीं थीं, पर खासी पढ़ी-लिखी भी मालूम नही हो रही थीं. कुछ ने सफ़ेद साड़ियां पहन रखीं थीं, पर वे नर्सें नहीं थी. हैरत की बात थी कि जुलूस में एक भी बच्चा नहीं था. घटना किसी देहात की नहीं थी, ज़िला मुख्यालय की थी. लेकिन प्रदर्शनकारी शहरी माहौल के आदी भी नहीं थे.
मैंने साइकिल से उतर कर पूछा.
"किन का जुलूस है यह?"
"स्कूल टीचरों का"
एक अजीबोग़रीब शर्म, बेबसी, और ग़ुस्सा कालिख बन उनके चेहरों पर पुते थे. इन सबसे भी ज़्यादा एक मलाल इनकी आंखों में चुभ रहा था... "हम इस तरह कभी नहीं घूमे. यह नौबत हम पर भी आएगी ऐसा सोचा नहीं था. "- माथे की लकीरों पर यह लिखा था- और बैनर पर एक घोषणा- जिसे पढ़ नहीं पाया.
न किसी की जयकार हो रही थी- न ही लोग मुठ्ठियां भींच कर चल रहे थे. आज तक ढकी आबरू हालात की आंच में धुआं बन कर धू-धू कर उड़ रही थी. सहसा सुनाई दिया- "अरे वहां देख- यह तो दामले मॅडम हैं!". पेन्शन की दहलीज़ पर दो वक्त की भूख से लड़कर हार चुकी वह विधवा वृद्धा मजबूरन कहीं निकल पड़ी थी. दामले मॅडम की नज़रें उन छात्राओं पर पड़ीं. मूंह पर हाथ रख छात्राओं ने हंसी छिपाई. न बैण्ड-न बारात- स्कूल के वक्त मैडम क़तार बनाकर कहां निकल पड़ीं? इन सवालों से भी ज़्यादा उन लड़कियों को अखरी मैडम की वह अनजान नज़र. फूल देनेपर दुलार देनेवाली, बच्चों के साथ सुर मिलाती, छड़ी को न छूती मैडम आज अजनबी बनीं थीं. उनकी ममता का मुखौटा आज बिखरा पड़ा था. दामले मैडम ही नहीं, सावंत मैडम, साठे मैडम, गुंजाळ मैडम, लोकरे मैडम, शेख़ मैडम भी! थोरात गुरुजी, भांगले गुरुजी, दाढे गुरुजी, तांबे गुरुजी, कुलकर्णी, देशपांडे, तांबट, कोष्टी, पागे, माने, साटम, काळे - सभी वह पल जी रहे थे जिसका सपना भी देखने की हिम्मत न हुई हो.
'शिक्षक मोर्चा' नामक एक बड़ी क्रांति आकर गयी थी. लेकिन वह मोर्चे अलग थे. तब गांधीजी के पश्चात बच्चों को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाने से पहले खुद शिक्षक शुद्ध होने निकले थे. आज का मंज़र किसी जज़्बे से नहीं जुड़ा था. भूख जैसे बुनियादी मसले से मजबूर अध्यापक अपनी लाज भरी सड़क पर उतार चले थे. इनके साथ तो पुलिस भी नहीं थी. ठीक ही है. टीचरों के जुलूस पर पुलिस तैनाती क्यों? सौ चूहों की खुसरपुसर भी क्या दहाड़ लगेगी? "बैठिए- बैठिए" की आवाज़ें आईं. सब मैदान में बैठ गए. मैं भी साइकिल टिकाकर एक पेड़ के नीचे जा बैठा. एक अध्यापक उठ खड़े हुए. दूर से हरि नारायण आपटे की तरह मालूम हुए. लहज़ा ऐसा था मानो क्लास में पाठ ले रहे हों. छोटे छोटे वाक्य और हर शब्द पर ज़ोर दे कर बोल रहे थे. "अध्यापक भाई-बहनों... पेशे की आबरू नहीं रही. सरकार की बात क्यों करें? हाक़िम अपने हों या विदेशी- अपनी दुबली जकड़ के बाहर हैं. लेकिन समाज ने भी मुंह फेर लिया. इतने सालों में किसी ने नहीं पूछा - 'मास्टरजी, दो वक्त की रोटी मिलती भी है?' . छिपी-छुपाई लाज आज चौराहे पर खड़ी है. अब क्या छुपाऊं? यह कोट देखें. पंदरह साल पहले शादी में सिला था. कमीज़ भी थी- वह फट गयी. नयी सिलवाने की ठानी थी. नहीं हो पाया. झूठ नहीं कह रहे हैं. यह देखो..." इतना कह कर उन्होंने कोट उतारा. कोट के नीचे छुपा अस्थिपंजर आंखों पर वार कर गया. "आज सड़क पर आ गए. इच्छा नहीं थी, पर चारा भी नहीं था. अंदर कमीज़ नहीं है. एक मुफ़्त मिले कोट से पेशे की आबरू छिपाते फिरे थे, पर अब आप का- मेरा एक सा हाल है! अब एक बिनती है... भूखा रखकर 'गुरुजी' ना कहें. बीवी और दो नन्हों की भूख मिटाएं, और फिर चाहें तो शिक्षा विभाग के मजदूर कहें, और एज्युकेशन एक्ट हटाकर फैक्टरी एक्ट लाएं" उतारा हुआ कोट कंधों पर रख गुरुजी बैठ गए. भाषण के बाद एक भी ताली नहीं बजी. सबके हाथ आंखें पोंछ रहे थे.
यह एक जुलूस मेरे मन में बस गया है. साथ में वह भाषण, और लड़कियों पर टिकी दामले मॅडम की वह अजनबी नज़रें!
-पुरुषोत्तम लक्ष्मण देशपांडे (भाषांतर)
( पुस्तक स्रोत- 'पु. ल. एक साठवण':- एका मोर्चाची गोष्ट)